ज़िंदगी के मेले
ऐसे बहुत से पल जो मनुष्य के जीवन को संगीतमय बनाने, मधुरता से भर देने और व्यक्ति को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते जाने में न केवल सहायक होते हैं अपितु ऐसे-ऐसे क्षणों से भर देते हैं कि मनुष्य की खोजी प्रकृति भी अचंभित हो जाने को मजबूर हो कर दाएँ-बाएँ झाँकने लगती है. मेरी ज़िंदगी में भी ऐसे लम्हों ने नाना प्रकार के करतब दिखाए हैं और मैं मौज-मस्ती में उन लम्हात को जी भर के जी लेने में अपने को खुश नसीब समझते हुए आगे बढ़ता आया हूँ. धन्यवाद ऐ ज़िंदगी और ज़िंदगी के मेलों से अवगत कराने वाले, ज़िंदगी के देने वाले मेरे प्रभु तुझे लाखों प्रणाम, इन मेलों से वाक़िफ़ कराया जो मेरी मानसिकता बदलने में, मुझे एक परिपक्व तथा समझदार मनुष्य बनाने में हर वक्त-ज़रूरत पर मेरा मार्ग-दर्शन करते रहते हैं.
आज मैं बैठा हूँ इन्हीं क्षणों को याद करते हुए हाथ में लेखनी पकड़े हुए काग़ज़ पर उकेरने के लिए कि ये वाक्यात जो मेरे नातियों को राह दिखाने में सहायक होंगे.
ये बच्चे जीवन के उस चौराहे पर आ पंहुचे हैं जहाँ से उन्हें अपनी राह का खुद ही चयन करना होगा. कॉलेज ही वह एक चुनौती भरा चौरस्ता है जिस पर खड़े हो कर उन्हें- सिमरन, यश और हर्षिनी-, तय करना होगा कि जीवन-संगीत को सुनते हुए ज़िंदगी के मेलों का आनंद किस प्रकार लिया जा सकता है.
इन्हें समझना होगा कि जीवन-पथ पर चलते हुए अनेक प्रकार के आड़े-तिरछे, ऊबड़-खाबड़ और जोखिम भरे रास्तों से गुज़रना होगा. बहुतेरे सीधे-सादे दिखने वाले लोग दोस्ती का हाथ बढ़ाएँगे परंतु छल-कपट से धोखा देने में कोई कोर-कसर न छोड़ेंगे. ऐसे लोगों से बचने की कला ज़रूर सीख लेना. ऐसा मैं अपने अनुभवों से सीख कर बता रहा हूँ.
हाँ, एक बात मैं ज़रूर कहना चाहूँगा कि कुछ शिक्षकों से भी बच कर रहना. ऐसे टीचर सिर पर हाथ फेरते हुए गालों तक पंहुच जाते हैं असल में ये टीचर नहीं चीटर होते हैं.
किसी भी अच्छाई के लिए धन्यवाद करना न भूलना. चमत्कार किसी भी समय हो सकता है.
किसी काम को करने की इच्छा हो तो डर कर रुक मत जाना, उसे कर डालना, टाल-मटोल मत करना.
खुश रहने की कला सीख जाओगे तो स्वयं तो प्रसन्न रहोगे ही दूसरों के साथ खुशी बाँटने में भी महारत हासिल कर लोगे.
कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद व्यापार सीखना, व्यापार करोगे तो व्यापार की बारीक़ियाँ खुद-ब-खुद आ जाएँगी.
मुझे उर्दू ज़बान बहुत अच्छी लगती है, इसके बोलने और सुनने का ढंग बहुत ही अच्छा, खूबसूरत तथा नज़ाकत और नफ़ासत से भरा हुआ और इससे मुझे बेहद लगाव है. मैंने अँग्रेज़ी (रोमन) और हिन्दी (देवनागरी) दोनों भाषाओं को पहली जमात से पढ़ना शुरू कर दिया था. क्योंकि मैं इंग्लिश मीडियम के स्कूल, हारकोर्ट बट्लर, नई दिल्ली, का छात्र रहा हूँ जहाँ पर पढ़ाई करवाने वाले सर और मैडम होते थे. इस स्कूल की एक ब्रांच शिमला में थी. उर्दू भाषा की समझ मुझे कोई खास तो नहीं, इसे न तो मैं पढ़ सकता हूँ और न मुझे इसकी किताबत ही आती है. लेकिन इसके बहुतेरे शब्द और उनके अर्थ यदि हिन्दी में लिखें हों तो मुझे
समझ में आ जाते हैं.
कविता, कथा-कहानी, उपन्यास पढ़ना मुझे बचपन से ही अच्छा लगता रहा है और मेरा लिखने में भी रुझान रहा है.
हाल ही में आर्मी के एक सेवानिवृत कर्नल विवेक सिंह से मुलाकात हुई जिन्होंने मुझे "ज़िंदगी आज मुझे जीने दे' से मेरा तार्रुफ़ अपने इसी नाम के काव्य ग्रंथ से करवाया है. मैं इन महानुभाव का तह-ए-दिल से शुक्र-गुज़ार हूँ.
यह ग्रंथ बेहद लुभावने जिल्द में लिपटा हुआ है, इसकी बेलाग प्रिंटिंग अत्यंत खूबसूरत पन्नों पर मोतियों की तरह उकेरे हुए हार्रूफ़ लेखक तथा मुद्रक के व्यक्तित्वों को उजागर करने में पूर्णतया उत्तीर्ण हो गए हैं.
न ही मैं चाचा नेहरू हूँ और न ही मेरी सोच पाकिस्तान के क़ायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना और न ही अविभाजित हिन्दुस्तान के आखरी वाइस-रॉय माउंट बैटन जैसी है परंतु एक बात अच्छी तरह से मेरी समझ में आ चुकी है कि देश का बटवारा अँग्रेज़ों की एक सोची-समझी चाल थी.
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