संदेश

सब बक़वास है

                                                                  सब बक़वास है सब बक़वास है  मेरे आस-पास है ; खाली दिमाग़ में उगती घास है. चहूँ ओर देख के उदास घासी मान है ; बगैर कत्थे-चूने के लगा हुआ पान है . हरा समंदर गोपी चंदर बोल मेरी मछली कितना पानी ? गिट्टे-गिट्टे पानी या गोड्डे-गोड्डे पानी ? मंकी - बंदर , सी - समंदर ; आउट है बाहर इन है अंदर ; अदरक़ जिंजर , क्ल्आउन कलंदर , दर्द तो होवे दिल के अन्दर. पिजन - कबूतर , उड़न - फ्लाइ ; लुक - देखो , आसमान - स्काइ क़लम है पैन्न खोह है डेन ग्रामर इस द बेस्ट बाइ मार्टिन & रैन ; कब है व्हेन ,  तब है दैन्न ; क्या है व्हाट , आँत है गट कहाँ है व्हेर , यहाँ है हेअर , बाल भी हेअर ;  खरगोश भी हेअर ! गोरा है फेयर ,  फेयर है मेला ; मेकिंग है बनाना ,  बनाना है केला ;   टोरटोईस है कछुआ , टो-रिंग है बिछुआ ; स्टमक है पेट ,  दरवाज़ा है गेट ; जिगर है लिवर    अब्डमन भी पेट , गाड़ी है ट्रेन , पीड़ा है पेन खिड़की का शीशा भी पेन गॉल ब्लैडर मे

दुनियावी मंज़र

                         दुनियावी मंज़र कितना मज़ेदार हो वो दुनियावी मंज़र ; ना मेरी कोई सीमा ना कोई तेरा समंदर                     ना वीसा , ना पासपोर्ट का हो कोई आडंबर ;                  ना कोई पोरस हारे , ना ही कोई होवे सिकन्दर. ना कोई दीनार , ना डॉलर , ना रूबल , ना रुपैया ; ना ही कोई बीच की दीवार , ना बॉर्डर , ना बाड़ और ना ही कोई किवाड़. इक बड़ा सा गाँव ; जहाँ चाहें वहीं ले जाएँ पाँव , ना तेरा , ना मेरा ; हो सब कुछ हमारा ; ये धरा , ये धरातल ; हो सब का प्यारा. और सभी कह उठें सारा जहाँ हमारा !

यहाँ सब कुछ नहीं है फ़र्ज़ी.

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  NOTHING IS CHEAPER THAN FREE                                                                                         नहीं यहाँ सब कुछ   ^   है फ़र्ज़ी. NOT ALL IS FICTITIOUS! दुनियावी मंज़र   पाब्लो पिकासो ने एक बार कहा था , “ इस दुनिया के मतलब तो समझ नहीं आते तो मैं ऐसी पेंटिंग क्यों बनाऊँ जो समझ में आए .”   हम पाब्लो पिकासो के आभारी हैं    

सोच- आदमी की

  सोच - आदमी की इक सोच ही तो है जो एक उपन्यास को गढ़ देती है . एक बीज ही है जो बरगद के पेड़ को ‘ बढ़ ’ देता है . बीज को सड़ने न दें   सोच को उजड़ने न दें दोनों ही वक़्त पर अपना काम कर जाएँगे . उपन्यास गढ़ जाएँगे , पेड़   “बढ़”  जाएँगे . इकसच आदमी की यह इक सोच ही है जो उसे आदमी से मानव , मानव से इंसान , दानव अथवा   महामानव , बनने में   सहायक सिद्ध   हो उसकी ज़िंदगी का रुख़ किसी भी दिशा की ओर मोड़ने में सक्षम होती है . आदमी यदि चाहे तो सोच बदलने में वक़्त ही कितना लगता है ! आदमी की सोच बिजली की गति से भी तेज़ रफ़्तार से उड़ने वाली अमूर्त भावना है , अमूर्त ( इनटॅंजिबल ) जो स्पर्श से न जानी जा सके और न ही आँखों से देखी जा सके . यह सोच एक बीज के समान ही तो होती   है . जैसे बीज के लिए उपयुक्त ज़मीन , मिट्टी , पानी , खाद की आवश्यकता होती है ठीक उसी प्रकार सोच को उड़ान भरने के लिए एक उत्तम विचारवान मस्तिष्क , उसमें स्थित स्थिर मन ,